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बदनियती को करें नियंत्रित

truth difficult 2 accept
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childhood-abuseआज के i- next की रिपोर्ट सड़क पर लड़कियों की सुरक्षा, कसे जाने वाले तंज, भद्दी फब्तियाँ, अपराधिक घटनाएँ इत्यादि, शायद इस ख़बर को पढ़ते समय महिला समाज की प्रतिक्रिया ऐसी हो, ‘‘ये सब तो रोज़ होता है। इसे क्या पढ़ना इससे ज्यादा तो हम जानते हैं और झेलते हैं।’’ और पुरूष समाज के संवाद होंगे, ‘‘ इतनी स्वतंत्रता लेंगी तो यही होगा। और चलो सड़कों पर मनमौजी अंदाज में।’’ पर क्या इतनी सी प्रतिक्रिया इस विषय की गंभीरता को कम कर देती है? बात करें अगर उस छोटी बच्ची की जिस पर कसी गई अश्लील फब्ती का उसे अर्थ भी नही पता परन्तु आस-पास वालों की उपाहासनीय-निर्लज हँसी फिर भी उसे लज्जित कर देती है या उस बच्ची की जिसे कोई अनजाना असुरक्षित स्पर्श सहमा देता है; क्या मानसिक स्थिति रहती होगी उस बच्ची की उस समय? दो दिन पूर्व की घटना जिसमें एक पॉश कॉलोनी में रहने वाले वकील साहब की नीयत दो मासूम बच्चियों पर बिगड़ गई; पढ़ने-देखने-सुनने वालों के लिए चंद घंटों बाद यह आई गई घटना हो गई या निकटस्थ पड़ौसियों के लिए चटपटी गॉसिप का विषय, परन्तु क्या किसी ने उन बच्चियों पर इस घटना के पड़े प्रभाव के विषय में सोचा है? क्या वे बच्चियाँ ता उम्र इस घटना के मानसिक दबाव से उभर पायेंगी? क्या उनका विकास सामान्य रूप से हो पायेगा? क्या फिर वे किसी अंकल पर विश्वास कर पायेंगी? हंसी ठिठोली करने वालों के लिए दो पल का मजा है और पीडिताओं के लिए मस्तिष्क के किसी कोने में हर पल की सिसकियाँ और घुटन। ज़रा समझिये और स्वीकार कीजिए कि खुश्नुमा और स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार हम लड़कियों को भी ईश्वर ने समान रूप से प्रदत्त किया है। किसी भी विकृत मानसिता को न तो यह हक छीनने का अधिकार है और न ही महिलाओं को यह हक थाल में परोसकर देने की आवश्यकता है।

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