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निरन्तर प्राप्त होने वाले बच्चों द्वारा आत्महत्या के समाचार ‘बच्चों द्वारा आत्महत्या’ को शोध का विषय बना रहे हैं। ये समाचार सोचने के लिए बाध्य कर रहे हैं कि क्यों आज बच्चों की भावनात्मक दृढ़ता शिथिल हो रही है। माता-पिता की डाँट हो या परीक्षा-परिणाम या कोई अन्य मामूली कारण- बच्चों को अपनी जीवन-लीला समाप्त करने के लिए उद्दीपक का कार्य कर रहा हैं। आखिर यह किसकी कमजोरी है- बच्चों की? जो आधुनिक परिवेश में अतिमहत्वकांक्षा का शिकार हो रहे हैं या माता-पिता की? जो बच्चों के जीवन के अनमोल क्षणों में उन्हें एकाकीपन का अहसास करा रहे हैं। जेनरेशन-गैप का राग अलापते-अलापते आज यह अन्तराल नियति बनता जा रहा है। अभिभावकों व बच्चों ने इसे जीवन का अभिन्न अंग मान लिया है और वैचारिक विविधता को पीढ़ीगत-शत्रुता में परिवर्तित कर दिया है। जबकि वास्तव में देखा जाये तो इन शब्दों का अस्तित्व हर पीढ़ी में मौजूद है और ये वैचारिक मतभेद भी चिरकाल से चलते आ रहे हैं। आवश्यकता है इन शब्दों के जाल से बाहर निकलकर वास्तविक कारण जानने की। अभिभावकों को बच्चों से मित्रता कर उन्हें समझते हुए अपना वह समय देने की जिसे वे पार्टी इत्यादि में व्यतीत करने में रसानुभव करते हैं। बच्चों को अपने प्रेम, अपनत्व, सुरक्षा व बड़प्पन का अहसास दिलाने की। उनके खट्टे-मीठे क्षणों में उनका सिर अपनी गोद में रख यह कहने की ‘ कोई बात नहीं बच्चे, हम हैं ना सदा तुम्हारे साथ।’ तब यकीनन बच्चों की भावनात्मक दुर्बलता की जड़ें अभिभावकों के प्रेम की बुनियाद में अपना अस्तित्व तलाशेंगी।
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